Saturday, June 16, 2012


नामकरण





रब ने आशीर्वाद, दादा दादी के अरमान,
मा की ममता, बहन के प्यार,
बडे पापा बडे मम्मी, चाचा चाची की मन्नत,
भाई के दुलार, बुआओं की चाहत को,
                                   कुदरत ने माला मे पिरों जीवन नया लिया है,
                                   तोहफ़े के रूप मे फुल सा राजकुमार
                                   हमारी बगिया महकाने भेजा है,
                                   उसका " चैतन्य " नामकरन कर हमने
                                   वंश को आगे बढा़या है !!!!!








Thursday, May 3, 2012

किसको मन की बात बताऊँ ........


किसको मन की बात बताऊँ
किससे मन का राज़ छिपाऊँ

इन बातों में फँस कर नाहक
क्यों मैं मन का चैन गँवाऊँ

जैसा हूँ वैसा ही क्यों न
दूजों पर खुद को जतलाऊँ

छल-छिद्रों से दूर रहूँ मैं
मन को निर्मल, साफ़ बनाऊँ

एै खुद़ा इतनी हिम्मत दे दो मौला
जीवन रह कर पाक़ साफ़ बिताऊँ........

Thursday, April 26, 2012

दर्द-ऐ-दिल अपना कभी हमें भी सुनाओ........


दर्द-ऐ-दिल अपना कभी हमें भी सुनाओ
ज़ख्म दिये कैसे उल्फतने हमें भी दिखाओ

कोई गुनाह नही है प्यार जो तुम ने किया कभी
देता हो दर्द गर यह एहसास, उसे दिल से मिटाओ

मिलती नही खुशिया सभी जिसकी की हो आरजू
किस्मत से मिली है जितनी उसका शुक्र मनाओ

ग़म में ख़ुद को मिटानेसे कुछ होता नही हासिल
मिले जो पल- दो-पल प्यार के, उसे प्यार से बिताओ

भर देंगे हर खुशी से यह दामन तेरा
तुज को कसम है "ग़ज़ल” थोड़ा ठहर भी जाओ



Thursday, October 8, 2009

मेरी एक कविता ...... भुली बिसरी सी !!

आज रात मैं  लिख सकता हूँ मैं,
निस्सीम दुःख की पंक्तियाँ
लिख सकता हूँ जैसे
अकस्मात् रात ज़रा ज़रा बिखर गयी है
और दूर आसमान में थरथराते हैं नीले तारे
रात की हवा आसमान में भंवर सी झूमती और गाती है.

सबसे दुःख की कविता में
लिख सकता हूँ मैं आज की रात
मैं उसे प्यार करता था
और कभी कभी उसने भी किया मुझसे प्यार.

आज वसे ही और रातों में
वो मेरे आगोश में सिमटी थी
इस अनंत आसमान के नीचे फिर - फिर चूमा मैंने उसे

उसने मुझे प्रेम किया
और कभी - कभी मैंने भी प्यार किया उसे
उन अपलक देखती बड़ी - बड़ी आँखों से
कैसी कोई बिना प्यार किये रह सकता था

दुःख की सबसे गाढ़ी और
स्याह सतहें लिख सकता हूँ आज रात
आज जब वो मेरे पास नहीं
आज जब महसूस करता हूँ उसका खोना
आज मैं सुन सकता हूँ इस असीमित विस्तार वाली रात
जो उसके न होने से और भी गहरा गयी है
और घास पर ओश की बूंदों जैसे
रूह  पर उतरती है " कविता "

न होकर भी वह  हर जगह इतनी है कि
क्या फर्क पड़ता है जो मेरा प्यार उसे रोक नहीं पाया
रात बिखरी हुयी है ज़रा - ज़रा और वो मेरे पास नहीं








बस! दूर कंही कोई गा रहा है, बहूत दूर
मैं नहीं मानता कि मैंने उसे खो चूका हूँ
मेरी नज़रें उस तक पंहुंचने के लिए तलाशती है
मेरा दिल उसे ढूंढ़ता है और वो मेरे पास नहीं

रात वही है
उन्ही दरखतों को दुधिया चांदनी में नहलाती हुयी
हम नहीं रह पाए वही, जो थे हम कभी

उसे मैं उसे प्यार नहीं करता
लेकिन जब भी किया इतनी दीवानगी से किया
मेरी आवाज़ ढूँढती थी उस हवा को
जिसमे उसके कानों की छुवन हो

किसी और कि, वो किसी और कि होगी अब
कोई और चूमता होगा अब उसे
उसकी आवाज़, उसकी दहकती देह
उसकी आँखें सीमा रहित अनंत

मैं उसे अब प्यार नहीं करता
लकिन शायद मैं करता हूँ उसे प्यार
प्यार इतना मुख्तसर और
उसे भुलाने की कभी न खत्म होती कोशिशें

एक ऐसे ही रात में मैंने उसे अपनी बांहों में पाया था
अब भी मेरी रूह नहीं मानती कि मैने उसे खो दिया

शायद यही उसका दिया आखरी दर्द होगा
और शायद यही नज़्म होगी
जो उसके लिए लिख सकता हूँ .....
(मेरी पुरानी संग्रह में से .....)

Thursday, September 3, 2009

तेरी दोस्ती में तुजे क्या पैगाम दू ....

तेरी दोस्ती में तुजे क्या पैगाम दू !

तेरा रूप है क्या,क्या मै इससे नाम दू !!

तेरी कदर करू मै केसे,क्या तुजे सलाम दू !

तेरी खुशबू हर जगह है,क्या तुजे फूलो की फुलवारी कहू !!

एक कड़ी थी रिस्तो की जो कमजोर पड़ी थी !

खड़ा था मै कही और मेरी जान कही और अडी थी !!

तेरे साथ जुडी थी वो विशवास की डोर थी !

जहा प्यार था अपनापन था वहा तू खड़ी थी !!

एक कहानी थी मेरी जो हकीकत मै बदल गयी !

लडखडाई हुयी मेरी जिन्दगी तेरी डोर से संभल गयी !!!!!

तुम्हारा साथ ....

तुम्हारा साथ रहा लम्बा और भरा-भरा
उछाह के वक़्तों में मिले थे
अवसादों की तलहटियों में सुर मिलाते रहे
सुनाया तुमने जीवन का लगभग हर संभव संगीत

प्रेम में डूबे दिनों में ग़ज़लें सुनीं इतनी बार कि
मेंहदी हसन का गला बैठ गया
नींद उन दिनों उड़ी रहती थी
तुम रोमानी लोरियाँ बन बजते थे ........


और क्या कहूँ दोस्त .... सब कुछ तो तेरा ही दिया हुआ है .....facebook/com

राहें बहुत सीधी सरल पर ....

राहें बहुत सीधी सरल पर ................
होने को तो होता है पर
कुछ का कुछ निशचित हो जाता है
आते आते हाथ फिसलकर मछली जैसा हल खो जाता है.
अपने ही वारों से, अपने को बचने की,
राह कठिन है मेंहदी सा पीस कर रचने की .

यूँ तो बुत सरल सीधी
पर राही यंहा भ्रमित हो जाता है.

भूले सिरे से इसकी असफलता ही उतनी,
और साथ में नयी शिराएँ और वो धमनी

आते जब परिणाम सामने
सृष्टा स्वतः चकित हो जाता.

अपने हाटों कात लिया, लेकिन फिर बुनना,
बीच - बीच में वाजिब कहना, वाजिब सुनना .......

राहें बहुत सरल सीधी पर
राही यंहा भ्रमित हो जाता ..........................